मुंबई, एससी संवाददाता : बलात्कार यानि रेप । अगर बलात्कार के शाब्दिक अर्थ पर गौर करें, तो इसका मतलब सिर्फ़ इतना होता है, बलपूर्वक किया गया कार्य । यानि अगर हम किसी की इच्छा के विरुद्ध उससे कोई भी काम करवाते हैं, तो इसे काम करने वाले का बलात्कार कहा जाएगा, लेकिन इस शब्द को सीमाओं में बांध दिया गया है, और बलात्कर का मतलब अब सिर्फ़ किसी के साथ जबरदस्ती सेक्सुअल संबंध बनानाभर रह गया है । बलात्कार की ये परिभाषा तय करने में हिंदी सिनेमा का बड़ा योगदान रहा है ।
सिनेमा के आदिकाल से फ़िल्मों में बलात्कार के दृश्य दिखाए जाते रहे हैं । ये संख्या इतनी ज़्यादा है, कि ऐसी फ़िल्मों की गिनती करना भी मुश्किल है, जिनमें बलात्कार को सब्जेक्ट बनाया गया है । कभी हीरोइन के साथ, तो कभी हीरो की बहन के साथ बलात्कार करके विलेन फ़िल्म के हीरो को ज़ख़्म देता था ।
ये ज़ख़्म जितने गहरे होते थे, हीरो के बदला लेने की वजह उतनी ही गहरी हो जाती थी, और फ़िल्म को उतनी ही तालियां मिलती थीं । मतलब, बलात्कार फ़िल्ममेकर्स के लिए ऐसा विषय रहा है, जिसे फ़िल्म में डालने से कोई रिस्क फेक्टर नहीं रहता था, और इसके बहाने फ़िल्ममेकर्स को थोड़ा सा एडल्ट कंटेट दिखाने का मौक़ा भी मिल जाता था, जो फ़िल्म की बॉक्स ऑफिस पर सेहत के लिए अच्छा होता था ।
बलात्कार के विषय पर कुछ संजीदा फ़िल्में भी बनी हैं । मसलन ‘इंसाफ़ का तराज़ू’, ‘अंकुश’, ‘दामिनी’, ‘हम नौजवान’, ‘हवा’, ‘बैंडिट क्वीन’, ‘हमारा दिल आपके पास है’, ‘जागो’ । पर पिछले कुछ वक़्त से हिंदी सिनेमा के पर्दे पर बलात्कार का ये सीन ग़ायब हो गया है ।
आंखों में हैवानियत लिए होंठों पर जीभ फिराता वो विलेन, और ‘भगवान के लिए मुझे छोड़ दो’ कहती अबला हीरोइन, हिंदी सिनेमा में नज़र नहीं आती । क्या इसे पर्दे पर वूमेन इंपॉवरमेंट का असर माना जाए, कि फ़िल्ममेकर्स ने औरत की मजबूरी, कमज़ोरी और बेबसी को अब कहानी बनाना बंद कर दिया है । इसीलिए बलात्कार के दृश्यों को रिटायरमेंट दे दिया गया है ।
हो सकता है, ये बात सही हो, क्योंकि हाल के कुछ सालों में पर्दे पर औरत की जो तस्वीर उभरकर आई है, वो बेहद ताक़तवर और दमदार है । हिंदी सिनेमा में औरत इतनी पॉवरफुल हो चुकी है, कि उसके साथ उसकी मर्ज़ी से तो सेक्सुअल रिलेशनशिप बनाई जा सकती है, लेकिन मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसे छूना तक संभव नहीं ।
इसीलिए, पिछले 2-3 सालों में जितनी भी फ़िल्में आई हैं, उनमें औरत को मर्दों के साथ शारीरिक संबंध बनाते तो दिखाया गया है, लेकिन बलात्कार जैसे दृश्य कहानी का हिस्सा नहीं रहे हैं ।
‘द डर्टी पिक्चर’ की नायिका अपने शरीर का इस्तेमाल सफलता की सीढ़ियां चढ़ने में करती है । वो अपनी मर्ज़ी से अपना जिस्म पुरुष को सौंपती है, पर उसके साथ बलात्कार नहीं होता । ‘हीरोइन’ की नायिका अपने खालीपन को भरने के लिए ऐसे पुरुष के साथ हमबिस्तर होने के भी गुरेज़ नहीं करती, जो पहले से शादीशुदा है ।
‘अइया’ की नायिका शादी के लिए पुरुष की कल्पना करती है, और इसके लिए उसकी फेंटेसी सेक्स के इर्द-गिर्द घूमती है । ज़ाहिर है, कि बलात्कार के लिए कोई जगह नहीं है ।
‘हेट स्टारी’ में भी मेन-वूमेन सेक्सुअल रिलेशनशिप को कहानी को आधार बनाया गया । क़ामयाबी के नशे में चूर नायिका अपने बॉस के साथ हम बिस्तर होती है, लेकिन ये भी दोनों की मर्ज़ी से होता है । औरत की बेबसी या मजबूरी की वजह से सेक्स नहीं हुआ था ।
ज़ाहिर है, बलात्कार यहां भी अपनी जगह नहीं पा सका । फ़िल्म ‘इशक़ज़ादे’ में भी नायक और नायिका को सेक्स करते दिखाया गया था, लेकिन ये भी बलात्कार नहीं था, क्योंकि नायिका अपनी मर्ज़ी से ख़ुद को नायक के हवाले करती है । ये बात अलग है, कि बाद में उसे पता चलता है, कि नायक का सेक्स करना सिर्फ़ एक साजिश का हिस्सा था ।
इस साल की ल्यूकवॉर्म सक्सेसफुल फ़िल्म ‘शुद्ध देसी रोमांस’ में तो बाक़ायदा लिव-इन रिलेशनशिप को दिखाया गया है, और खास बात ये कि हीरोइन ख़ुद इसकी पहल करती है।
शायद ये पर्दे पर वूमेन इंपॉवरमेंट का ही नतीजा है, कि फ़िल्मों में मेन-वूमेन सेक्स के दृश्य तो बढ़े, लेकिन बलात्कार को फ़िल्म की कहानी में बिल्कुल जगह नहीं दी जा रही है । यानि आज की बेहद बिंदास नायिकाओं को पर्दे पर वो दृश्य जीने का मौक़ा नहीं मिल रहा, जो कभी मानस मन को अंदर तक हिलाकर रख दिया करते थे । सिनेमा के सौंवे साल में वूमेन इंपॉवरमेंट का ये मंजर वाकई दिलचस्प है ।