- फिल्म- अग्नि
- भाषा- हिंदी
- अवधि- 122 मिनट
- प्लेटफॉर्म- प्राइम वीडियो
- स्टार- *** (तीन)
- कलाकार- प्रतीक गांधी, दिव्येंदु, संयमी खेर, सई तम्हन्कर, उदित अरोड़ा, कबीर शाह आदि।
- निर्देशक- राहुल ढोलकिया
- लेखक- राहुल ढोलकिया
मनोज वशिष्ठ, मुंबई। Agni Movie Review: रोहित शेट्टी ने कॉप यूनिवर्स रच दिया है। इस यूनिवर्स में वो मुंबई पुलिस के जवानों की वीरता और दिलेरी के किस्से दिखाते हैं। फौजियों और सेना के जवानों की कुर्बानी और शहादत पर सैकड़ों फिल्में भारतीय सिनेमा में बन चुकी हैं।
जब खतरों से खेलने की बात आती है तो फायर ब्रिगेड विभाग यानी अग्निशमन विभाग भी पीछे नहीं है। आप की लपटों में घिरी जिंदगी बचाने के लिए कई बार फायर ब्रिगेड के जांबाज अपनी जान दांव पर लगा देते हैं।
युद्ध के मैदान या फिर सीमा पर ना सही, मगर शहादत उनकी भी होती है। जान हथेली पर लेकर चलने का हुनर और जान बचाने का जज्बा उन्हें भी खूब आता है। ताज्जुब है कि रोमांच के तमाम अवयव होते हुए भी इस पेशे पर सिनेमा की नजर कम ही पड़ी है।
प्राइम वीडियो पर शुक्रवार को रिलीज हुई फिल्म अग्नि देखते हुए मैं यही सोच रहा था कि माइथोलॉजी से लेकर सदियों आगे और पीछे की कहानियां दिखाने को आतुर लेखक-निर्देशकों की नजर से अब तक अग्निशमन विभाग क्यों ओझल रहा?
फायर ब्रिगेड विभाग कर्मियों के जीवन में उतरती ‘अग्नि’
दिल्ली हो या मुंबई, आग की वारदातें खूब होती हैं। झुग्गी-झोपड़ियों से लेकर बहुमंजिला इमारतें, सभी में अंगार की घटनाएं (फिल्म में आग को अंगार बोला गया है) देखने-सुनने को मिलती हैं।
इन घटनाओं के बारे में पढ़ते या सुनते वक्त जहन में तस्वीर भी उभरती है कि कैसे अग्निशमन दल के जांबाज आग में घुसते होंगे, ये जानते हुए भी कि सीधे मौत के मुंह में जा रहे हैं। उनके परिवार की मनोस्थिति कैसी रहती होगी?
उनके बारे में उनके बच्चे क्या सोचते होंगे? वो अपने बच्चों और परिवार के लिए नायक होते होंगे, या साधारण पिता? इस पेशे में आखिर ऐसा कौन-सा मोटिवेशन है, जो सीधे मौत के मुंह में जाने के लिए प्रेरित करता होगा? पुलिस, फौज या ऐसे ही दूसरे पेशों की तरह इस विभाग के लोग तो खबरों में भी नहीं रहते।
ऐसे सभी सवालों के जवाबों को गूंथकर ‘परजानिया’ और ‘रईस’ बनाने वाले राहुल ढोलकिया ने अग्नि का संसार रचा है। अगर फिल्मों में आग और दुर्घटना स्थल पर खड़ी फायर ब्रिगेड के दृश्यों को छोड़ दें तो सम्भवत: हिंदी सिनेमा की यह पहली फीचर फिल्म है, जो पूरी तरह अग्निशमन विभाग के कर्मचारियों की दिनचर्या और कार्यशैली में झांकती है। उनके काम की संजीदगी, चुनौतियों और कमजोरियों पर फोकस करती है।
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कैसी है कहानी और स्क्रीनप्ले?
फिल्ममेकिंग के हिसाब से अग्नि (Agni Movie Review) की अपनी खूबियां और कमियां हैं, मगर विषय चुनने के लिए राहुल ढोलकिया को पूरे नम्बर देने होंगे। अस्सी के दौर में आई मल्टीस्टारर ‘द बर्निंग ट्रेन’ के बाद ‘अग्नि’ ऐसी फिल्म कही जा सकती है, जिसका विषय हर वक्त आंखों के सामने रहता था, मगर नजरों में ठहरता नहीं था।
फिल्म की कहानी के केंद्र में मुंबई के परेल फायर स्टेशन का चीफ विट्ठल राव (प्रतीक गांधी) और पुलिस इंस्पेक्टर समित सावंत (दिव्येंदु) हैं। दोनों जीजा-साले भी हैं। मगर, स्वभाव में एक-दूसरे से बिल्कुल अलग। दोनों में इसीलिए बनती भी नहीं है।
मुंबई के विभिन्न इलाकों में आग की घटनाएं होती रहती हैं। विट्ठल की टीम वहां जाती है और सफलतापूर्वक फंसे लोगों को निकालती है। विट्ठल को इन घटनाओं के बीच एक पैटर्न नजर आता है और उसे शक होता है कि आग की घटनाएं हादसे नहीं, बल्कि साजिशन लगाई जा रही है।
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विट्ठल की इस थ्योरी का विरोध पुलिस महकमा करता है। यह आग कौन लगा रहा है, क्यों लगा रहा है, इन सवालों के जवाबों के साथ कहानी आगे बढ़ती है।
अग्नि (Agni Movie Review) की कहानी एकदम सपाट है। इसमें बहुत उतार-चढ़ाव नहीं है। काफी हद तक प्रेडिक्टेबल भी है। क्लाइमैक्स भी साधारण है, जो पीछे हो रही घटनाओं का विस्तार ही है। उसमें रोमांच का बहुत बड़ा फेरबदल नहीं होता। मगर, इसकी असली जान किरदार और कलाकारों का अभिनय है।
कथाभूमि ज्यादातर साउथ मुंबई ही है, क्योंकि सारी गतिविधियां परेल फायर स्टेशन से संचालित हो रही हैं। फिल्म देखते हुए जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वो है फायर ब्रिगेड विभाग की कार्यशैली।
कैसे आग की सूचना मिलने पर टीम तैयार होती है? अफरा-तफरी के बीच किस तरह फायर अधिकारियों की नजर अपने मकसद पर रहती है? हजारों डिग्री तापमान की आग के बीच फंसा होने के बावजूद फायर अधिकारी का दिमाग ठंडा रहता है, ताकि वो सही दिशा में घबराये बिना सोच सके।
भवन निर्माण से संबंधित विभागों की लापरवाही, कामचोरी और घूसखोरी के कारण बढ़ती आग की घटनाओं में जान गंवाते अग्निशनम विभाग के कर्मचारियों की व्यथा सामने आती है। इस विभाग को लेकर सरकारी तंत्र की उदासीनता को डिप्टी सीएम के साथ मीटिंग के दृश्यों में दिखाया गया है।
स्क्रीनप्ले टाइट है। कहीं भी बोरियत नहीं होती। संवाद कहानी और किरदारों के हिसाब से लिखे गये हैं। कथाभूमि मुंबई है तो मराठी मिश्रित हिंदी किरदारों को विश्वसनीय बनाती है।
कैसा है कलाकारों का अभिनय?
विट्ठल राव के किरदार में प्रतीक गांधी और महादेव के किरदार में जीतेंद्र जोशी के बीच वार्तालाप के दृश्य जानदार हैं। इन दोनों की बातचीत में इस पेशे के लिए जान न्योछावर करने वालों की जिद और कसक दोनों उभरकर आते हैं।
बार में शराब पीते हुए हो रही यह बातचीत कहानी के प्लॉट का अहम हिस्सा भी है। दोनों कलाकारों ने इसे बखूबी अंजाम दिया है। अतरंगी मगर तेज-तर्रार पुलिस अधिकारी के किरदार में दिव्येंदु को देखकर पुलिस वाली फीलिंग नहीं आती, मगर अपने अभिनय और स्पॉन्टेनिटी से उन्होंने इस कमी को ढकने की पूरी कोशिश की है।
उनके हिस्से मजेदार संवाद आये हैं। खुर्राट मुंबइया पुलिस अधिकारी के लहजे में अपने साथियों और अपराधियों के साथ उनकी बातचीत मनोरंजक लगती है। संयमी खेर, सई तम्हन्कर, उदित अरोड़ा और बाल कलाकार कबीर शाह ने अपने किरदारों के खांचे में अच्छा काम किया है।
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कैसा है राहुल ढोलकिया का निर्देशन?
अग्नि (Agni Movie Review) ऐसे विषय पर बनी फिल्म है, जिसमें तकनीकी विभाग की भूमिका अहम हो जाती है। एक-दो जगह छोड़ दें तो आग के दृश्यों का वीएफएक्स अमूमन ठीक ही है। राहुल ढोलकिया का निर्देशन चुस्त है। कमजोर कहानी को भी उन्होंने कलाकारों के अभिनय और टाइट स्क्रीनप्ले से कस दिया है।
क्रेडिट रोल्स में देवनागरी में लिखे अपने नाम (जो कि राहुल धोलक्या लिखा गया है) का भी निर्देशन कर लेते तो बेहतर होता। फिल्म के किरदारों का भाषा मराठी मिश्रित हिंदी है, मगर मुंबई में बैठे फिल्मकारों को यह बात समझनी होगी कि फिल्म हिंदीभाषी दर्शक के लिए बनाई जा रही है। ऐसी गलतियां निर्माताओं की अपने दर्शकों की समझ के प्रति हल्केपन को दर्शाती हैं।