Inside This Story
* भारतीय सिनेमा में बढ़ रही हिंसा
* अब डराते नहीं हिंसक दृश्य
* रोमांस में भी हिंसा की तलाश
मुंबई। Violence In Indian Cinema: नेटफ्लिक्स की सीरीज यह काली काली आंखें के दूसरे सीजन में एक दृश्य है। नायक अपनी गर्लफ्रेंड को बचाने के लिए एक शख्स को पहले हिंसक तरीके से मारता है। फिर उसकी लाश को ठिकाने लगाने के लिए बाथरूम में उसके टुकड़े-टुकड़े कर देता है।
यह नायक साइको किलर नहीं है। ना ही उस शख्स के साथ उसकी कोई ऐसी दुश्मनी थी कि उसे इतनी हैवानियत से मौत के घाट उतारे। वो यह काम पूरे होशो-हवास में इसकी संजीदगी को समझते हुए करता है। नैतिकता के चक्कर में ज्यादा नहीं पड़ता। यह बानगीभर है।
ओटीटी स्पेस में असीमित हिंसा
ओटीटी स्पेस में ऐसी सीरीजों की भरमार है, जिनमें दृश्यों की हिंसा ढिशूम-ढिशूम की आवाजों और नायक के होठों के किनारे से बहती खून की पतली धार से बहुत आगे निकल चुकी है। अब नायक मुक्कों से पीट-पीटकर चेहरे का कचूमर निकालता है और कैमरा भी एक बार उस चेहरे को कैद करता है।
ऐसे दृश्यों के फिल्मांकन और दिखाने की हिचक धीरे-धीरे कम हो रही है। ओटीटी स्पेस में अभी कोई नियंत्रित करने वाली बॉडी नहीं है तो इस प्लेटफॉर्म पर आने वाले कंटेंट किसी भी लगाम के दायरे से बाहर है।
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बदल रहा सिनेमा का मिजाज
मगर, ओटीटी ही क्यों? हिंसा के इस प्रदर्शन से बड़ा पर्दा भी अछूता कहां है। समय की धार को देखते हुए रोमांटिक फिल्मों से लोगों का मन बहलाने वाले करण जौहर को भी किल बनानी पड़ती है, और इसे भारतीय सिनेमा (Violence In Indian Cinema) की सबसे हिंसक फिल्म कहकर प्रचारित भी करना पड़ता है।
प्रेम कहानियां भी ऐसी ढूंढी जा रही हैं, जिनमें हिंसा का स्कोप हो। पिता ऋषि कपूर का एक्शन देखने के लिए दर्शक तरस जाते थे, दादा राज कपूर की तो बात ही छोड़ दीजिए, मगर रणबीर कपूर एनिमल बनकर कपूर खानदान के पहले सबसे हिंसक नायक बन गये हैं।
आज का नायक जो हिंसा पर्दे पर कर रहा है, वैसी 70 और 80 के दौर में विलेन भी नहीं कर पाता था। कोई फिल्ममेकर हिंसा की डोज बढ़ाने की कोशिश करता था तो सेंसर बोर्ड डोज को नियंत्रित कर दिया करता था। शोले का गब्बर ठाकुर के दोनों हाथ काटता है, मगर दृश्य लाल नहीं होता।
क्लाइमैक्स में ठाकुर पैरों में लगी कीलों से गब्बर के हाथों को कुचल देता है, मगर सिनेमा का पर्दा लाल नहीं होता।
बॉलीवुड से साउथ तक फैला लाल रंग
हिंसा के प्रदर्शन में यह बदलाव बॉलीवुड से साउथ (Violence In Indian Cinema) तक फैला हुआ है। नायक के मुंह खून लग चुका है। फिल्मकार हिंसा के दृश्यों को दिखाने के लिए क्रिएटिव हो रहे हैं। पिछले कुछ सालों में आईं फिल्मों के पोस्टरों को देखेंगे तो जानेंगे कि खून से लथपथ नायक पोस्टर ब्वॉय बन गया है।
केजीएफ 2, सालार और देवरा जैसी फिल्में नायक के बढ़ते हिंसा प्रेम को दिखाती हैं तो इनकी सफलता आम दर्शक के लाल रंग से इश्क को जाहिर करती है। भारतीय सिनेमा का नायक अब नैतिकता के बंधनों को तोड़कर स्याह और सफेद क्षेत्रों से निकल चुका है।
वो अब ग्रे एरिया में रहता है, जहां सही गलत कुछ नहीं होता। सिर्फ हालात होते हैं। वो प्रतिनायक भी है और विलेन भी। इस बदलाव के बारे में यह काली काली आंखें में लीड रोल निभाने वाले ताहिर राज भसीन कहते हैं-
“नैतिक रूप से जटिल और हिंसक नायकों के प्रति यह आकर्षण सिनेमा और ओटीटी में एक व्यापक ट्रेंड को दर्शाता है। नायक अब सिर्फ अपनी अच्छाई से नहीं, बल्कि अपनी कमजोरियों, संघर्षों और निर्णयों से परिभाषित होते हैं। आज का दर्शक ऐसी कहानियों को अधिक अपनाता है, जो जीवन की जटिलताओं और अप्रत्याशित स्वरूप को दर्शाती हैं। यही कारण है कि 'वायोलेंट हीरो', जिनके काम हिंसक हो सकते हैं, लेकिन उनके दिल में करुणा होती है, अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं।”
यह सिलसिला फिलहाल रुकने वाला नहीं है। दिसम्बर में आ रहीं अल्लू अर्जुन की पुष्पा 2 द रूल और वरुण धवन की फिल्म बेबी जॉन पर्दे पर हिंसा की नई तस्वीर पेश करेगी।